Sunday, October 11, 2015

Sorrow, depression and spiritual quest

जब जीवन में दु:ख आते हैं तो उनसे कुछ लोगों में दु:खों से छूटने की आकांक्षा पैदा होती है और कुछ लोग शोक में डूब जाते हैं (go into depression)। दु:ख का ऐसा अलग अलग प्रभाव क्यों होता है, इसका उत्तर मुझे एक जगह भागवत्‌ पढते हुए मिला। उससे और कुछ अन्य शास्त्रों को पढने से समझ आया कि जिन लोगों के संचित पुण्य कर्म नहीं होते वे शोक में डूबकर नीचे की योनियों में चले जाते हैं और जिनके जीवन में पुण्य कर्मोंके फलिभूत होने का समय आ पहुंचा है वे साधना के मार्ग को ढूंढ्कर उसमें संलग्न हो जाते हैं। इस विषय में श्रीमद्‌भागवत में श्रीहनुमानप्रसाद पोद्दार जी की एक टिप्पणी से कुछ excerpts यहां उद्धरित कर रहा हूं।  

जीव का मन भोगाभिमुख वासनाओं से और तमोगुणी प्रवृत्तियों से अभिभूत रहता है। वह विषयों में ही इधर-से-उधर भटकता रहता है और अनेकों प्रकार के रोग-शोक से आक्रान्त रहता है। जब कभी पुण्यकर्मों के फल उदय होने पर भगवान की अचिन्त्‌य अहैतुकी कृपा से विचार का उदय होता है, तब जीव दु:खज्वाला से त्राण पाने के लिए और अपने प्राणों को शांतिमय धाम में पहुँचाने के लिए उत्सुक हो उठता है। वह भगवान के लीला धामों की यात्रा करता है, सत्संग प्राप्त करता है और उसके हृदय की छटपटाहट उस आकांक्षा को लेकर, जो अब तक सुप्त थी, जगकर बड़े वेग से परमात्मा की ओर चल पड़ती है। चिरकाल से विषयों का ही अभ्यास होने के कारण बीच-बीच में विषयों के संस्कार उसे सताते हैं और बार-बार विक्षेपों का सामना करना पडता है। परंतु भगवान्‌  की प्रार्थना, कीर्तन-स्मरण, चिंतन करते-करते चित्त सरस होने लगता है और धीरे-धीरे उसे भगवान्‌  की सन्निधि का अनुभव भी होने लगता है। थोडा-सा रस का अनुभव होते ही चित्त बडे वेग से अंतर्देश में प्रवेश कर जाता है और भगवान मार्गदर्शक के रूप में संसार-सागर से पार ले जाने वाली नाव पर केवट के रूप में अथवा यों कहें कि साक्षात्‌ चित्‌स्वरूप गुरुदेव के रूप में प्रकट हो जाते हैं। ठीक उसी क्षण अभाव, अपूर्णता और सीमा का बंधन नष्ट हो जाता है, विशुद्ध आनंद – विशुद्ध ज्ञान की अनुभूति होने लगती है।”  

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