Monday, April 27, 2015

क्या, मैं नहीं हूँ!

किसी ने रमण महऋषी से पूछा, क्या जीवन में सभी कुछ भाग्य के अनुसार घटित होता है या उसमें व्यक्ति की free will का भी कोई रोल है। महऋषी ने कुछ इस प्रकार जवाब दिया – तुम तो हो ही नहीं, फिर तुम्हारी free will का प्रश्न ही कहाँ उठता है?
 
उनके कहने का मतलब था कि एक परमात्मा ही अलग अलग रूपों में अपने आप को अभिव्यक्त (manifest) करता है। जो भी इस जगत में आँख से देखा जा सकता है, वह सिर्फ दिखाई देता है, वास्तव में है नहीं। वह  अकेला ही exist करता है और जो भी होता हुआ मालूम पडता है वह उसकी लीला है। उसके अलावा कोई है ही नहीं। ऐसी स्थिती में non-existent beings (mere appearances) के द्वारा कुछ किये जाने का का प्रश्न ही कैसे उठ सकता है।
 
इसको समुद्र और उसमें दिखाई देने वाली लहरों के रूप में समझा जा सकता है। वास्तव में लहर नहीं होती, पानी का ही तल कहीं थोडा ऊँचा होता है, कहीं नीचा।  इस बात को इस प्रकार भी कह सकते हैं कि समुद्र में लहरे नहीं होती, समुद्र लहराता है। लहर सिर्फ एक आभास मात्र है, सिर्फ दिखाई पडती है, वास्तव में होती नहीं।
 
अपने एक अलग व्यक्तित्व के अहसास को, मैं हूँ’, इस भाव को शास्त्र अज्ञान की मूल ग्रंथी (central knot of ignorance) बतलाते हैं। इसी से मेरे का भाव, राग-द्वेश और उनसे पैदा होने वाली सारी समस्यायें महसूस होती हैं। लेकिन हम अपनी बुद्धी से कितना भी सोचें, हमें अपने होने से ज्यादा सच तो कुछ भी नहीं लगता।
 
Confusion is further confounded when शास्त्र परमात्मा के साथ साथ आत्मा और जीव की बात भी करते हैं। यही नहीं, कर्मों के अनुसार पुनर्जन्म और प्रारब्ध के अनुसार कर्म फल की भी बात करते हैं। अगर व्यक्ति है ही नहीं, तो आत्मा क्या है और पुनर्जन्म किसका होता है?
 
इन्हीं सभी complex प्रश्नों का उत्तर श्रीमद्भागवत्‌ [4:22:22 से 34] में एक जगह बडे ही सरल, संक्षिप्त  और सुंदर रूप में मिलता है। सरल शब्दों में इसे इस प्रकार समझा जा सकता है।
 
जिस प्रकार दर्पण के कारण object का एक प्रतिबिम्ब दिखाई देता है, होता नहीं, वैसे ही सुक्ष्म या लिंग शरीर (subtle body) के कारण, जीवात्मा परमात्मा के प्रतिबिम्ब के रूप में मालूम पडती है। जीव की प्रतिबिम्ब की भांति कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं होती। और जैसे प्रतिबिम्ब कोई स्वतंत्र action नहीं कर सकता, object का action ही प्रतिबिम्ब में भी दिखाई देगा, उसी प्रकार जीव का भी कोई स्वतंत्र action नहीं हो सकता, जो action जीव के द्वारा होता हुआ मालूम पडता है, वास्तव में वह action  परमात्मा का ही action है।

जब तक दर्पण है, प्रतिबिम्ब देखाई देता है उसके बाद नहीं। ठीक उसी प्रकार “जब तक अंतःकरणरूप उपाधि रहती है, तभी तक पुरुषको जीवात्मा, इंद्रियों के विषय और इन दोनों का सम्बंध कराने वाले अहंकार का अनुभव होता है उसके बाद नहीं”। अतः जीवात्मा और अहंकार यानि मैं भाव सिर्फ आभास मात्र है, वास्तव में है नहीं। लेकिन जब तक यह उपाधि है, आभास है, मै भाव स्वप्न की तरह बिल्कुल सत्य मालूम पडता है और सुख: दुख: का अनुभव भी बिल्कुल वास्तविक लगता है।

और यह उपाधि कैसे समाप्त हो, इस बारे में बताया गया है ‌- “परब्रह्ममें सुदृढ प्रीति हो जाने पर पुरुष सद्गुरु की शरण लेता है; फिर ज्ञान और वैराग्य के प्रबल वेग के कारण वासना शून्य हुए अपने अविद्यादि पाँच प्रकार के क्लेशों से युक्त अहंकारात्मक अपने लिंग शरीर को वह उसी प्रकार भस्म कर देता है, जैसे अग्नि लकडी से प्रकट होकर फिर उसी को जला डालती है”।

जब तक लिंग शरीर (subtle body) भस्म नहीं होता, तब तक वह अलग अलग योनियों में जन्म पाता है अर्थात्‌ उसमें परमात्मा अलग अलग जीवों के रूप में भासित होता रहता है।

लिंग शरीर के भस्म होने का साधन बताया गया है ज्ञान और वैराग्य को। ज्ञान और वैराग्य उत्पन्न होता है सद्गुरु की शरण लेने से और सद्गुरु की शरण मिलती है परमात्मा में सुदृढ प्रीति से यानी भक्तिसे। और व्यक्ति में भक्ति कैसे पैदा हो इसके जो मुख्य उपाय बताये गये हैं उनमें सबसे पहला स्थान है श्रीहरि के भक्तों और संतों का संग। उसके अलावा जो उपाय हैं उनमें शास्त्रों का पठन; गुरु और शास्त्र के वचनों में विश्वास; श्रीहरि की पावन कथाओं को बार बार पढना, कहना और सुनना; एकांत में प्रेम रखना; योग क्षेम के लिये प्रयत्न न करना (जो प्रारब्धवश मिल जाये उसी में संतुष्ट रहना) आदि सम्मिलित हैं।

यहाँ इस बात का जिक्र करना भी उचित होगा की भक्ति का अर्थ भगवान की usual पूजा प्रार्थना तक सीमित नहीं है। परमहंस नित्यानंदजी ने एक बार बताया था कि वे सभी उपाय और प्रयास जिनसे व्यक्ति उस वास्तविक परम सत्ता के अनुसंधान और अनुभव के लिये प्रयास करता है, वे सभी प्रभु की भक्ति में सम्मिलित हैं।

भक्ति के फल और महिमा और भक्ति पाने के साधन के बारे में, तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस के उत्तरकांड में लिखा है:


“भगति  करत बिनु जतन प्रयासा। संसृति मूल  अबिद्या  नासा॥

भोजन करिअ तृपिति हित लागी। जिमि सो असन पचवै जठरागी॥

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मोरें  मन  प्रभु  अस  बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा॥

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सब कर फल हरि  भगति सुहाई। सो  बिनु  संत न काहूँ  पाई॥

अस बिचारि  जोइ कर सतसंगा। राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा॥
 
अर्थात्‌ भक्ति करने से संसृति (जन्म मृत्युरूप संसार) की जड अविद्या बिना ही यत्न और परिश्रम के (अपने आप) वैसे ही नष्ट हो जाती है, जैसे भोजन किया तो जाता है तृप्ति के लिये और उस भोजन को जठराग्नि अपने आप (बिना हमारी चेष्टा के) पचा डालती है।

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हे प्रभो! मेरे मन में तो ऐसा विश्वास है कि श्रीरामजी के दास श्रीरामजी से भी बढकर हैं।

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सब साधनों का फल सुंदर हरिभक्ति ही है। उसे संत के बिना किसी ने नहीं पाया। ऐसा विचारकर जो भी संतों का संग करता है, हे गरुडजी! उसके लिये श्रीरामजी की भक्ति सुलभ हो जाती है”।


अतः श्रीहरि के भक्तों और संतों के संग (उनके संग से और जो कुछ भी करना जरूरी होगा, अपने आप होने लगेगा) से व्यक्ति आसानी जीवन के परम उद्देश्य (अविद्या यानी मैं भाव से मुक्ति – realisation of oneness of everything) की ओर अग्रसर हो सकता है।


 

1 comment:

  1. सर इस विषय पर ओर भी गहन चर्चा की प्रतीक्षा रहेगी।

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