Formal studies में किस का ‘मन’ लगता है, मन तो ‘मनोरंजन’ में लगता है। जो students
अपने आप ही seriously पढते हैं, वे भी अपने ambition और इच्छा शक्ति (will
power) के बल पर पढते हैं, मन तो
उनका भी मस्ती और laze around करने का
ही करता है। हाँ, यह बात
भी है कि पढाई में अच्छी performance होने से
धीरे-धीरे उनके अंदर पढने के लिये strong motivation पैदा हो
जाता है और वे फिर बिना किसी के कहे अपने आप seriously पढने
लगते हैं।
Then
there are students who though do not have much interest in formal studies, they
have natural flair for some sport, music, dance etc. These students are also
self propelled and enjoy pursuing their areas of interest. These students need understanding parents who can appreciate their choice of vocation
and do not expect excellence in formal studies.
Yet another category of students are those who do not have special interest
or flair for anything and require counseling, goading and may even require use
of some force from their parents to make them study. For example, son of one of my friends was not
taking interest in his studies and was just enjoying his life – going around on
motorcycle with his girl friends. He
failed in his professional course. My
friend took him to task, forcibly stopped him going around and sat with him to
make him study. The boy became a pilot.
Further, parents in these cases need to be realistic in their
expectations matching the capabilities of their wards. For example, my sister’s elder son and
daughter were average students – not very bright. My sister and Jijaji, got their son admitted
for a Diploma Course in Engineering instead of a degree course and daughter
took admission in a nursing course instead of a degree course in medicine. Since the courses matched their capabilities,
they did quite well in their studies (daughter in fact topped in her exams) and grew in confidence. Soon they
got jobs. Subsequently, their son
comfortably obtained Engineering Degree from a good college and is now well
settled in life.
And coming
back to the students who have intention and capabilities to study and also the aspiration
to make a decent living, पर उनका पढने में ‘मन’ नहीं लगता। Consequently, they vile away their time in inconsequential or trivial activities,
laze around or entertain themselves through video games, chat on mobiles or on
social media, watching shows or serials, partying etc. And then they feel guilty and low for not having
put in adequate effort in their studies.
Attempt here in this write-up is to help these students to come back on
track.
इस विषय में पहली बात जो समझने की आवश्यकता है वह यह है कि आमतौर पर ‘मन’ के अनुसार चलने को व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता मानता है। अक्सर लोग कहते हुए सुने जाते हैं कि क्या हम अपने मन से अमुक् (a
particular) काम भी नहीं कर सकते, क्या हमें इतनी भी स्वतंत्रता नहीं है। हर कोई समझ सकता है कि ऐसी चीजें खाना जो स्वास्थ्य के लिये नुकसान दायक हैं; गप-शप करते हुए या किसी मनोरंजन में indulge करते हुए रात में देर तक जगना, सुबह देर से उठना और इस कारण अपनी पढाई, class, exercise आदि को भी skip कर देना, अपने हित में नहीं है। फिर भी मन के कहे में चलकर या इसे यों कहें कि मन के हाथों मजबूर होकर व्यक्ति ऐसे कार्य अक्सर करता ही रहता है।
Obviously यह व्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं, वरन् वास्तव में यह मन की गुलामी है। इसीलिये किसी ने कहा है – मन की कही पर चलने वाले फिर पीछे पछतायेगा।
दूसरी बात, आमतौर पर मन का स्वभाव है कि वह ‘काम’ में नहीं लगना चाहता
वह बिना काम किये ही जीवन के सभी enjoyment चाहता है - क्या बैल कभी गाडी या हल में
जुतना चाहता है,
क्या बच्चे स्कूल का home work करना चाहते
हैं, क्या कोई आफिस
में excessive
काम करना चाहता है,
क्या किसी को early morning की flight board करने
के लिये बिस्तर से उठना अच्छा लगता है? Obviously
नहीं! परंतु
उनको यह सब करना पडता है। इसी प्रकार मन का पढने में न लगना यद्यपि स्वाभाविक है, पर यह न पढने के लिये कोई कारण नहीं है, उसे पढने में लगाना ही पडेगा।
इस बारे में एक और बात, मनुष्य शिर्फ ‘मन’ नहीं है, उसके जीवन में ‘बुद्धी’ और ‘इच्छा शक्ति’ का, जो उसकी स्वयम् की ही हैं, महत्वपूर्ण role है। इसे ऐसा समझें कि मन एक बच्चे की तरह है और बुद्धी उसके माता पिता की तरह है। मन बच्चे की तरह किसी भी चीज के लिये लालायित हो उठता है, बुद्धी का कार्य है कि माता पिता की तरह उसे उसके pros and cons के बारे में उसे समझाये और जरूरत पडने पर इच्छा शक्ति के द्वारा forcibly उसे ऐसे कार्य
करने से रोक दे, जो उसके हित में नहीं हैं और
ऐसे काम के लिये force करे जो
उसके हित में हैं।
अतः पढने के लिये जबरदस्ती बैठना
जरूरी है। ऐसे में मन जीवन में उत्साह और उमंग की कमी, low
mood; जुकाम, headache जैसी
किसी बिमारी आदि को कारण बनाकर, न पढने
को justify करने का प्रयास करता है। इससे
सावधान रहने की आवश्यकता है। क्या headache, low mood, tiredness आदि के
कारण कोई अपने किसी अत्यधिक आवश्यक कार्य या appointment को
छोडता है? नहीं न, तब
पढाई क्यों छूटनी चाहिये? In fact, when I was doing BE from Roorkee, I used
to suffer from common cold for not less than 7 months a year with frequent
headaches – never took any medicine for relief and I did quite well and was
high in merit list. जबरदस्ती
पढाई के लिये बैठते-बैठते मन धीरे-धीरे ऐसे routine को
स्वीकार कर लेता है और फिर पढाई उतनी burdensome नहीं लगती। अगर कोई पढने के
लिये low mood से बाहर आने और जीवन में उत्साह और उमंग के आने की इंतजार
में बैठा रहे, तो समय
तेजी से निकल जायेगा और जीवन में निराशा और पछ्तावा ही रह जायेगा।
Fixing reasonable periodical target in terms of
number of hours (ambitious targets need to be avoided as failure
to achieve them will bring down self confidence) and keeping a regular
record of time spent on studies on each subject helps in forcing oneself into
studying. For me weekly target worked
better as the deficiency in first few days (because of visit of some friend or relative, some social or other
engagement) could me made good in remaining days of the week.
एक और बात, पढने के एक session की समाप्ति और दूसरे session की
शुरुआत के बीच के समय को व्यायाम, सोने
या जप आदि के लिये use में लाना चाहिये।
While
one must forcibly make oneself study despite low mood and feeling of
being empty inside, low mood and feeling of emptiness के
कारणों और उनसे बाहर निकलने के उपायों पर मैंने अपने blog पर कुछ
अन्य posts में विस्तार से लिखा है। इसलिये यहाँ संक्षेप में कुछ
संकेत ही दे
रहा हूँ।
- Low mood या जीवन में रिक्तता के अहसास का मुख्य कारण है शरीर में प्राण ऊर्जा की कमी। प्राण ऊर्जा प्राप्त होती है स्वास (breathing) के द्वारा और उसका ह्रास (loss) होता है चिंता-शोक आदि के द्वारा। तो प्राण ऊर्जा को बढाने और प्रफुल्लता का जीवन जीने के लिये हमारे daily routine में ऐसी activities जरूरी हैं जिनसे गहरी और तेज स्वास चले (इससे ज्यादा प्राण ऊर्जा शरीर को प्राप्त होगी) और व्यक्ति चिंता-शोक (worry-sorrow) आदि को avoid करे।
- वैसे भी, स्वस्थ मन के लिये स्वस्थ शरीर का होना जरूरी है। स्वस्थ रहने के लिये नियमित दिनचर्या को follow करना और उचित व्यायाम (more than 40 minutes of brisk walking or jogging, swimming, dance, exercise etc.), भोजन और नींद आदि लेना आवश्यक है।
- चिंता-शोक आदि को avoid करने के लिये यह समझना जरूरी है कि इस जीवन में यद्यपि हमको पढाई और अन्य कार्य करना आवश्यक है (क्योंकि यह शरीर और मन कुछ किये बिना बैठ ही नहीं सकते और अगर इनको किसी ठीक कार्य में न लगाया जाय तो ये गलत या बेकार काम में लग ही जाएंगे) उसका result necessarily वह नहीं होगा जो हम चाहते हैं। फल प्रारब्ध के अनुसार मिलता है। बहुत बार ऐसा भी हमारे अनुभव में आता है कि जो हम चाह रहे थे वह हमारे लिये अच्छा था ही नहीं। ऐसे में हमें इस असफलता से दुखी होने के बजाए, दूसरे अवसरों की तलाश और उसके लिये कार्य तुरंत शुरु कर देना चाहिये।
- इसके अलावा, जो व्यक्ति spiritual practices में believe करते हैं उनके लिये किसी भी negative भाव दशा से बाहर निकलने के लिये, “हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे” जैसे मंत्रों का जप करना helpful होता है। इस जप को उठते बैठते, चलते फिरते, खाते पीते किसी भी समय और कितनी भी बार कर सकते हैं। सीतारामदास बाबा कहते हैं कि अगर negative भाव दशा ज्यादा गहरी हो तो इसी मंत्र का जप बैठकर उँचे स्वर में करना चाहिये।